Saakhi – Bhai Manjh Ji Ki Sewa Bhavna
भाई मंझ जी की सेवा भावना
[responsivevoice_button voice=”Hindi Female” buttontext=”इस साखी को सुनें”]
भाई मंझ जी, जिनका असली नाम तीरथा था। यह सुलतानीए के बड़े नेता और प्रचारक थे। इन के घर सखी सरवर का पीरखाना भी था। तीरथा हर साल निगाहे सरवर पीर की यात्रा पर जाया करता था। यह गाँव के चौधरी थे। इन के पास इतना धन था कि उस दौलत की धूम दूर-दूर तक थी। भाई मंझ गाँव कंग माई जिला होशियरपुर के रहने वाले था। वह पीरखाने पर हर गुरूवार को नियम के साथ रोट (मीठी मोटी रोटी) चढाते थे और बड़ा जत्था श्रद्धालुओं का ले कर प्रचार पर भी जाया करते थे।
1585 ई. की बात है कि आप जत्थे समेत निगाहे से हो कर वापस गाँव जा रहे थे कि आप ने अमृतसर में गुरू अरजन देव जी की संगत का रहन-सहन और सिक्खों के जीवन के दर्शन किये। सतगुरु जी और गुरसिक्खों की संगत ने इस तरह का रंग लगाया कि वह गुरू घर के ही हो कर रह गए।
एक दिन मंझ जी ने सतगुरु जी से सिक्खी की बख्शिश (मांग/रहमत) मांगी। सतगुरु अरजन देव जी ने फरमाया, ‘(पुरखा!) सिक्खी पर सिक्खी नहीं टिकती। पहले उन का त्याग कर जो सिक्ख मत (विचारधारा) के उलट हैं। तो तूं सिक्खी निभा सकेगा। फिर सिक्खी में अकाल पुरख के लड़ लगते है (शरण जाते हैं) और सत्य के मार्ग पर चलते हुए आम लोगों की नाराजगी भी सहन करनी पड़ती है। अगर तू ऐसी कुर्बानी (त्याग) कर सकता है तो सिक्खी पर चल सकोगे।’
भाई मंझ जी अपने गाँव आ गए और सब से पहले उन्होंने पीरखाने को ढहा (गिरा) दिया और सखी सरवर की पूजा करनी छोड़ दी। कई मुश्किलें आईं। इतिहास इस बात का गवाह है कि भाई मंझ जी ने गुरू-घर के साथ चित लगाने (नाता जोडऩे) के उपरांत अपने गाँव के निवासियों की तरफ से किये गये विरोध को कुछ भी न समझा। कहते हैं कि उन के घर का आर्थिक संकट इस कदर गहरा गया कि घर खाने के लिए भी कुछ न रहा। घर का खर्च चलाने के लिए आप जी ने घास बेचना शुरू किया, परन्तु इस आर्थिक संकट के बावजूद भी कोई व्यक्ति अगर आप जी के दर पर आया तो वह खाली नहीं गया।
आप जी सेवा सिमरन में इतना लीन हो गए कि अपनी सुध-बुद्ध ही भूल गई। सुबह कथा कीर्तन सुनते और फिर गुरू साहब के घोड़ों के लिए घास लाते। घास लाने के बाद आप जी लंगर के लिए लकडिय़ां लानें जंगल में चले जाते। और फिर वापस आकर सारा दिन लंगर की सेवा करते रहते।
एक दिन धन-धन श्री गुरु अरजन देव जी महाराज ने आप जी को पूछा कि रोटी-पानी कहाँ से खाते हो, तो आप जी ने कहा कि लंगर में से छक (खा) लेता हूं। गुरू साहब कहने लगे कि यह तो फिर मजदूरी हो गई ! यह कौनसी सेवा है, जो आप गुरू-घर के लिए लकड़ी ले कर आते हो, उसका आपने परशादा छक (खाना खा) लिया। यह तो फिर मजदूरी हो गई! अगले दिन से भाई साहब ने लकड़ी लाने की सेवा करनी और परशादा संगतों की जूठी पत्तलों को एकत्रित करके जो उस में से जूठा मिलना उसको धो कर वह छकना।
एक दिन फिर गुरू साहब जी ने पूछा सेवा तो बहुत करते हो अब परशादा कहाँ से छकते हो? तो भाई मंझ जी ने कहा संगतों की जूठी पत्तलों में जो बचता वह छकता हैं। सतगुरु कहने लगे भाई मंझ यह कौनसी सेवा है कौवों-चिडिय़ों के पेट और लात मार रहे हो, यह जूठी पत्तलों का बचा हुआ हिस्सा पशु पक्षियों के लिए होता है।
उस के बाद भाई मंझ जी अपनी काम (नौकरी आदि) करने लग गये। गुरू के लंगर में लकडिय़ां पहुँचाने का काम उसी तरह चलता रहा। एक दिन बहुत ज्यादा बारिश हुई, आँधी तूफान चलने लगे। भाई मंझ जी गुरू के लंगर के लिए लकडिय़ां ले कर आ रहे थे कि तूफ़ान की लपेट में आ कर कुए में गिर पड़े परन्तु अपनी जान से भी अधिक लकडिय़ों को संभाल कर रखा। लकडिय़ों को उसी तरह ही सिर पर टिकाए रखा। कुए में गिरने बाद भी उसी तरह लगातार बाणी का जाप करते रहे।
उधर अमृतसर चिंता होने लगी कि भाई मंझ जी लकडिय़ां ले कर नहीं पहुँचे। गुरू साहब ने भाई मंझ की खोज के लिए अनेक सिक्खों को भेजा। सिक्खों ने देखा कि भाई मंझ जी कुए में लकडिय़ां सिर पर संभाले हुए बाणी का जाप कर रहे हैं। जब गुरू अरजन देव जी महाराज को पता लगा कि भाई मंझ जी कुए में गिर गए हैं तो गुरू साहब स्वयं नंगे पैर ही दौड़ पड़े।
कुए के पास पहुँच कर कुए में रस्सा फेंका गया और कहा कि भाई मंझ, रस्सा पकड़ कर बाहर आ जाओ। भाई मंझ जी कहने लगे, कि पहले लकडिय़ां निकालो। वह बाद में बाहर आऐंगे। इसी तरह ही किया गया। पहले गुरू के लंगर के लिए लकडिय़ां बाहर निकालीं गई और फिर भाई मंझ जी को बाहर निकाला गया। भाई मंझ की इतनी घालना (अनूठी सेवा भावना) को देख कर गुरू अरजन देव जी महाराज ने भाई मंझ जी को अपने गले लगा लिया और कहने लगे, ‘भाई मंझ जी, आपकी सेवा परवान हो गयी है। कुछ माँग लो।’ तो भाई मंझ हाथ जोड़ विनम्रता सहित कहने लगे, ‘हे सतगुरु जी, आप पहले से ही बहुत कुछ दे रहे हो। ओर कुछ मांगने की इच्छा नहीं है।’
सतगुरु जी कहने लगे, ‘भाई मंझ जी, कुछ माँग लो।’ भाई मंझ कहने लगे, ‘सच्चे पातशाह जी, एक विनती है, कलयुग का समय है अपने सिक्खों का इतना इम्तिहान न लिया करो जी, सिक्खों से इतने कठिन इम्तिहान दिए नहीं जाएंगे। मेहर करो आप जी के चरणों से जुदाई कभी न हो। सदा के लिए सेवा सिमरन में लगे रहें।’
भाई मंझ जी की यह बात सुन कर धन धन श्री गुरु अरजन देव जी महाराज कृपा के घर में आ गए और यह वर दिया ‘मंझ प्यारा गुरु को, गुरु मंझ प्यारा। मंझ गुरु का बोहिथा, जग लंघणहारा।’ भाई मंझ जी ने सारा जीवन विनम्रता सेवा-सिमरन करते हुए बिताया। अहंकार को कभी भी अपने पर हावी नहीं होने दिया। दोआबे का यह सखी सरवरियों का प्रमुख भाई मंझ गुरू अरजन देव जी के चरणों में इस प्रकार जुड़ा कि सदा-सदा के लिए इतिहास में अमर हो गया। भाई मंझ जी द्वारा की गई सेवा हमारे लिए जीवंत मिसाल है।
शिक्षा – इस साखी से यह शिक्षा मिलती है कि हमें सदा गुरू नानक के घर की ओट लेते हुए सेवा सिमरन में विनम्रता सहित लगे रहना चाहिए जिससे हमारा यह जीवन सफल हो सके और यदि हमारे मन में कोई और बैठा है तो वहां वहाँ सिक्खी नहीं टिक सकती, जहाँ कोई नहीं बैठा सिक्खी वहीं टिकती है।
Waheguru Ji Ka Khalsa Waheguru Ji Ki Fateh
— Bhull Chukk Baksh Deni Ji —