Guru Amardas Ji Or Vyapari Gangu Shah
गुरु अमरदास जी और व्यापारी गंगू शाह
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अम्बाला के दउला गांव का रहने वाला गंगू शाह व्यापार में मनोवांछित सफलता नहीं पा रहा था। पहले अपने गांव में किए व्यापार में नुकसान हुआ, फिर लाहौर जैसे बड़े शहर में भी व्यापार में नफा बस ना के बराबर ही था। उदास गंगू शाह बहुत परेशान था।
अरे भाई, ये काफिला कहाँ जा रहा है?
गंगू भाई, हम सब गोइंदवाल साहब जा रहे हैं।
वहाँ क्या है?
वहाँ धन्न गुरु अमरदास जी महाराज रहते हैं। उनके दर्शन को काबुल, कंधार और बहुत दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं। वो दर्शन उपरांत वहां से यादगार के तौर पर कुछ ना कुछ सामान जरूर खरीद कर जाते हैं, वहां लाभ की अच्छी संभावना है।
गंगू शाह ने भी अपना सामान छकड़े पर लादा और काफिले के साथ गोइंदवाल आ गया।
गोइंदवाल में सचमुच किसी बड़े मेले सी धूम थी, गंगू शाह का सामान कुछ ही दिनों में अच्छे लाभ में बिक गया।
अब दिल्ली जा कर और अच्छा सामान ले कर आता हूँ, ये मंडी अच्छी है…….यहीं दुकान लगा कर व्यापार अच्छा चलता है।
लेकिन…… क्यों ना नया माल भरने से पहले एक बार इस गुरु को भी मिल लिया जाए, जिसको मिलने इतने लोग बावरों की तरह रोज यहां आते हैं।
ऐसा कुछ सोचते हुए गंगू शाह गुरु दरबार में आ कर श्रद्धालुओं की पंक्ति में खड़ा हो गया।
एक-एक कर के आगे बढ़ते हुए गुरु जी की मिल रही हर एक झलक गंगू शाह के मन में दर्शन की ललक को और गहरा करती गई।
आखिर वो समय आ गया। गंगू शाह सतगुरु जी के सामने था, इतना सुरूर…..इतनी शांति…….हतप्रभ से खड़े गंगू शाह को पता ही नहीं चला कब उसके हाथ में गुरु जी के लिए लाई भेंट सतगुरु जी के श्री चरणों में जा गिरी थी।
आओ शाह जी, व्यापार तो अब ठीक है ना?
सतगुरु जी, आपकी कृपा है, बस इतना ही कहते गंगू शाह ने अपना मस्तक सतगुरु जी के चरणों में झुका दिया।
उठो शाह जी, आज आप अपनी दुकान छोड़ यहां कैसे आ गए?
सतगुरु जी, मैं अपने धंधे में बरकत ढूंढता था, लेकिन आज मैं जान गया हूँ, सब बरकत, सब लाभ, आपकी कृपा से ही प्राप्त होते हैं।
गंगू शाह, बरकत क्या है?
गुरु जी, हम व्यापारी तो सारा साल व्यापार करने के बाद माल में लगी लागत निकालने के बाद हाथ में आए अतिरिक्त धन लाभ को ही बरकत कहते हैं।
ठीक है गंगू शाह, ये परिभाषा तो अच्छी बरकत की है, सच्ची बरकत क्या है?
महाराज, आप ही समझाएँ, सच्ची बरकत क्या है?
गंगू शाह, एक बीज पर माली मेहनत करता है, उसे पौधे से पेड़ बनाता है। उस पेड़ पर हर साल सैंकड़ो फल लगते हैं, लेकिन पेड़ एक भी फल अपने पास नहीं रखता सब का सब वापिस लौटा देता है। वो एक बीज पेड़ के रूप में फल के साथ सैंकड़ो बीज भी हर वर्ष लौटा देता है। उसी तरह समाज से व्यापार कर उत्पन्न होने वाला धन, समाज के ही कल्याण कार्य में खर्च करने पर मनुष्य सच्ची बरकत पा सकता है। लेकिन मनुष्य का मन कई तरह के विषयों में घिरा रहता है। कुछ विरलों को छोड़ कर बाकी सब व्यापारिक कमाई को अपना मान कर, स्वयं को उसका स्वामी मान कर जीवन व्यतीत करते हैं। जिस बन्दे ने वर्षो में टका टका बचा कर धन एकत्र किया हो वो समाज पर खुले दिल से खर्च कैसे करे। इसके निदान हेतु गुरु नानक साहब जी ने सिख को दसवंध (कमाई का दसवां भाग) समाज की भलाई पर खर्च करने का हुक्म दिया, गरीब के मुख को गुरु की गोलक कहा।
गंगू शाह! दिल्ली जा रहा है, दिल्ली में ही व्यापार कर, बस गुरु नानक साहब की ये बातें याद रखना।
1. सच्ची किरत (कमाई) करना 2. बन्दगी करना 3. मिल बाँट कर खाना (दसवंध जरूर निकालना)
पर गुरु जी….मैं भला कैसे जानूँगा, कौन जरूरत मन्द है? कौन भला है? कौन बुरा है? इन सब में उलझने से बचने के लिए 1 उपाय मुझे सूझ रहा है अगर आप की आज्ञा हो तो अर्ज करूँ।
गंगू शाह, दसवन्ध (कमाई का दसवां भाग) देने के लिए निर्वाण और दयालु हृदय चाहिए। जब कोई दु:खी फरियाद ले कर आता है तो दयालु जीव को उसकी आत्मा ही सत्कर्म करने को प्रेरित करती है और वो उस जीव की सहायता ‘तेरा तुझ को अर्पण’ की भावना से करता है, और उसका हृदय निरंकार का उसे सेवा कार्य बख्शने हेतु धन्यवाद करता है। तूँ व्यापारी है, अपनी समझ बता।
सतगुरु जी, मेरा मन कहता है कि मैं धन गुरु नानक साहब जी महाराज के नाम का एक खाता अपनी बही में बना लूँ, हर सौदे के नफे (लाभ) का 10 वाँ हिस्सा मैं गुरु नानक साहब जी महाराज का जमा करता रहूं और जब कभी आप को जरूरत हो आप एक चिट्ठी लिख कर उस रकम को जैसे और जिस सेवा में खर्च करने को कहें, मैं उसे उसी अनुसार खर्च कर दूँ।
ठीक है व्यापारिया, जैसा तेरा मन, गुरु नानक साहब तेरा भला करें।
गंगू शाह दिल्ली आ गया।
कुछ वर्ष बीत गए।
गंगू शाह का व्यापार दिन दौगुनी रात चौगुनी रफ्तार से बढ़ रहा था। काम संभालने को सैंकड़ो नौकर-चाकर रखे हुए थे। सारा शहर गंगू को अब शाह जी, शाह जी पुकारता था, बड़े बड़े रईस, नवाब अक्सर गंगू शाह से धन आदि की सहायता लेने उसकी बड़ी सी हवेली में आते रहते थे।
एक दिन एक ब्राह्मण गंगू शाह के घर आया, उसने गंगू शाह को एक खत दिया।
ये खत गुरु अमरदास पातशाह जी ने भेजा था जिसमे उन्होंने गंगू शाह को गुरु नानक साहब के खाते में से उस पण्डित को बेटी की शादी के लिए 500 रुपए सेवा रूप में देने की बात लिखी थी।
मुनीम जी, जरा देखो……हमारे पास किसी गुरु नानक का खाता है?
मुनीम सब बही खोल कर देखने लगा और बोला,
शाह जी, इन बहीओं में तो गुरु नानक नाम के बन्दे का कोई खाता नहीं, हाँ शायद किसी बहुत पुरानी बही में शायद कोई खाता था कि नहीं, मुझे याद नहीं।
जाओ पण्डित जी, यहां गुरु नानक नाम के बन्दे का कोई खाता नहीं, गंगू शाह ने बोला।
लेकिन गुरु अमरदास जी ने कहा था कि ये चिट्ठी पढ़कर गंगू शाह तेरी मदद करेंगें।
अब जब खाता ही नही हैं, तो पैसा किस बात का दूँ…….और ये सब दौलत मुझे किसी गुरु नानक ने नहीं, मेरी व्यापारिक समझ और मेरी मेहनत ने मुझे दिलवाई है, और ऐसे किसी की भी चिट्ठी पढ़ कर मैं अपना धन लुटाता रहा तो सिर्फ गंगू रह जाऊँगा, शाह नहीं।
पण्डित जी वापिस गोइंदवाल आ गए, गुरु जी को सब बात सुनाई। सतगुरु जी ने भाई पारो जी को हुक्म कर पण्डित जी की यथायोग्य सहायता कर उन्हें विदा किया।
कुछ महीने बीत गए।
श्रद्धालुओं की पंक्ति आज भी सदा की तरह लम्बी थी,गोइंदवाल आज भी जैसे किसी भरे मेले सा ही लग रहा था।
लेकिन आज पंक्ति में एक जन लगातार मुँह छुपाए रोए जा रहा था, आज सतगुरु जी की यदा-कदा दिखती झलक से भी वो बचना चाहता था।
और आज फिर वो समय आ गया।
सतगुरु जी सामने शोभायमान थे और आज उनके चरणों पर कोई भेंट नहीं एक निढाल सा शरीर पड़ा था, जो अपना सिर ऊपर उठाने को राजी ना था।
आओ गंगू शाह, कैसा रहा व्यापार?
मैं पहले ही अपने कर्मो के कारण शर्मसार हूँ सतगुरु। मुझे और लज्जित ना करें। आप की दया से वर्षो में कमाया धन, आपसे विमुख हो कर कुछ दिनों में खो दिया। आप की दया से नवाबों को कर्ज देने वाले गंगू को आपसे विमुख होने पर कोई पानी भी नहीं पूछता। सारी कुदरत मुझसे ऐसे रूठ गई है कि जिन तरकीबों से व्यापार में अथाह धन उतपन्न होता था उन तरकीबों ने मुझे कंगाल कर दिया। मैं जान गया सतगुरु, व्यर्थ के अहंकार में मनुष्य को कितनी क्षति होती है। जब हवेली छोड़ कर चलने लगा तो पुराने सन्दूक में एक बही पड़ी थी ये दिल्ली में मेरे व्यापार की पहली बही थी उसमें मैंने अपने हाथों से पहला खाता धन्न गुरु नानक साहब का डाला था और पहले वर्ष के हुए लाभ में से 500 रुपए गुरु नानक साहब को दसवन्ध के रूप में देना लिखा था। आपने तो मुझ मूर्ख से उतनी ही सेवा मांगी थी जो प्रथम वर्ष में मैंने स्वयं गुरु नानक साहब जी के नाम देना लिखी थी। मुझे बख्श दीजिये सतगुरु, मुझे बख्श दीजिये।
गंगू शाह, क्या व्यापार फिर से शुरू करना चाहते हो?
नहीं सतगुरु, अब मुझे आपके पास रहना है। जो धन इतने वर्षों तक मेहनत करने के बाद भी मुझे छोड़ गया अब वो धन ऐश्वर्य मुझे नहीं चाहिए। मुझे बस अब आपका सानिध्य चाहिए। मैंने इस लोक के हर सुख का उपभोग कर लिया। अब मुझे पारलौकिक आनन्द की अनुभूति चाहिए जो आपकी दया से और आपके श्री चरणों की सेवा से ही मिल सकती है। मुझे भाई पारो जैसे आपका प्यार चाहिए।
गंगू शाह ने सतगुरु जी के सानिध्य में रह कर उनके उपदेशानुसार जीवन जी कर ब्रह्मज्ञान की अवस्था प्राप्त की और सतगुरु जी की आज्ञा से अपने पैतृक गांव देउला आ कर गुरमत का प्रचार किया। उनकी सेवा और सिमरणी जीवन की उन पर धन्न गुरु अमरदास जी की इतनी रहमत हुई कि देउला गांव में आज भाई गंगू शाह की अंश-वंश ‘शाह जी’ के नाम से ही सम्मान पाती हैं।
शिक्षा: हमें सतगुरु के वचनों का पालन करना चाहिए और दीन-हीन की सेवा में हर समय तत्पर रहना चाहिए।