Saakhi – Guru Gobind Singh Ji Or Sikh Noujawan
गुरू गोबिन्द सिंह जी और सिक्ख नौजवान
[responsivevoice_button voice=”Hindi Female” buttontext=”इस साखी को सुनें”]
सतगुरू श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज आनंदपुर साहब की धरती पर सिंहासन पर बिराजमान थे। नजदीक कुछ प्यारे सिक्ख सतगुरू के साथ वचन-विलास करके मन के शंके दूर कर, आशीषें प्राप्त कर रहे थे। सतगुरू ने अपनी वाणी को विश्राम दिया और अपने गड़वई भाई जालम सिंह को आवाज दी, जालम सिंह ! प्यास मिटाने के लिए ठंडा पानी लेकर आओ। किसी कारण जालम सिंह बाहर गया हुआ था। सतगुरू की पानी मांगने की आवाज सुन कर संगत में से एक चढ़ती जवानी का नौजवान, जिस ने सुंदर कपड़े पहने हुए थे, सुंदर डील डौल-डोल, हाथ बड़े कोमल और पतले; हाथ जोड़ उठ खड़ा हुआ और विनती की, पातशाह! जालम सिंह हाजिर नहीं है, आप मुझे आज्ञा दें तो मैं श्री जी के लिए जल ले कर आता हूँ। सतगुरू जी ने हाँ का इशारा कर दिया।
नौजवान चला गया, थोड़ी देर बाद कटोरा धो माँज कर, जल भर कर, गुरु साहिब को हाजिर किया। सतगुरू जी ने नौजवान के हाथ से जल वाला कटोरा पकड़ लिया और उस के हाथों की तरफ देखते हुए वचन किया, भाई गुरसिखा ! तुम्हारे हाथ बड़े कोमल हैं, पतली उंगलियाँ इस तरह मालूम होती हैं जैसे तूने इन्हें बहुत संभाल कर रखा है, कभी इन हाथों से संगतों की सेवा की है? सिक्ख नौजवान ने उत्तर दिया, पातशाह! घर में आपके आशीर्वाद से धन पदार्थ बहुत है। नौकर हर समय सेवा में हुक्म का इन्तजार करते हैं। आज पहला दिन है कि इन हाथों से आप जी के लिए गड़वा-कटोरा माँज धो कर जल लाया हूँ। गड़वा-कटोरा माँजने से पहले मैंने अपने हाथ शुद्ध किये फिर बर्तनों की सफाई की और स्वच्छ जल श्री जी के लिए लाया हूँ।
सतगुरू जी ने नौजवान सिक्ख के वचन सुन कर जल का कटोरा धरती पर उलट (जल धरती पर गिरा दिया) दिया। सिक्ख नौजवान हैरान-परेशान था कि मैं हाथ धो, गड़वा कटोरा माँज कर जल लाया परन्तु सतगुरू जी ने ग्रहण नहीं किया बल्कि धरती पर गिरा दिया है। लोग क्या कहेंगे कि यह नौजवान गुरू की दृष्टि में कितना बड़ा पाप कर्मी है? अंदर ही-अंदर चिंता नौजवान को खाने लगी और डरते-काँपते नौजवान ने पूछा, पातशाह! मैं शुरू से ही सिक्ख परिवार का सिक्ख पुत्र हूँ। पातशाह ! मुझसे क्या गलती हो गई जिसके कारण आप जी ने मेरे हाथ का जल स्वीकार नहीं किया?
कलगीधर जी कहने लगे, नौजवान! ठीक है कि तुम्हारे पिता दादा सिक्ख हैं और तूनें भी पाहुल ली है, सिक्खी ग्रहण की है परन्तु तूने सिक्खी कमाई नहीं है। तुम सिक्खी को कंजूस के धन की तरह संभाल कर बैठे हो। सिक्खी जब कमाई जाती है तब ही प्रफुल्लित होती है और कमाई हुई सिक्खी मन को, शरीर को और समूचे मनुष्य जन्म को सफल करती है। सिक्खी, केवल धारण करने का नाम नहीं, सिक्खी कमाने का नाम है। ‘सिक्खी क्रियाहीन नहीं, सिक्खी क्रियाशील हो कर, सिक्खी के असूलों को अमल में लाने का नाम है।
सिक्खी की शुरुआत सेवा से होती है। सेवा के साथ शरीर के कर्म इन्द्रियां स्वच्छ होती हैं, मन पवित्र होता है। सेवा करने से मन में विनम्रता आती है, अंदर से अहंकार खत्म होता है। अहंकार खत्म होने पर ‘नाम’ अंदर टिक कर अकाल पुरख की हजूरी का निवास बख्शीश करता है। इस हजूरी याद में बसने वालों को फिर सेवा करनी नहीं पड़ती, ऐसे गुरसिक्ख से सेवा अपने आप होती है। मैं बड़ा उज्जवल (गौरवर्ण और स्वच्छ) हूँ। यह सफेदी का मान मन को मलीन (गंदा) करता है। सेवा करने से साथ मन का मैलापन दूर होता है। गुरू और प्रभु के दर पर मान-रहित, विनम्रता में सेवा करन वाला ही कबूल होता है।
शिक्षा – तन की स्वच्छता और सफलता संगत की सेवा करने से, धन की सफलता जरूरतमंदों की जरूरत पूरी करने से और मन की पवित्रता परमात्मा के सिमरन करने से होती है।
Waheguru Ji Ka Khalsa Waheguru Ji Ki Fateh
– Bhull Chukk Baksh Deni Ji –