Sangrand Hukamnama Greetings Mahina Assu – Dhansikhi

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Sangrand Hukamnama Mahina Assu

Sangrand Hukamnama Greetings Mahina Assu - Dhansikhi
Sangrand Hukamnama Greetings Mahina Assu – Dhansikhi

Sangrand Hukamnama Mahina Assu

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Sangrand Hukumnama Assu

ਬਾਰਹ ਮਾਹਾ ਮਾਂਝ ਮਹਲਾ ੫ ਘਰੁ ੪
ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥

ਅਸੁਨਿ ਪ੍ਰੇਮ ਉਮਾਹੜਾ ਕਿਉ ਮਿਲੀਐ ਹਰਿ ਜਾਇ ॥ ਮਨਿ ਤਨਿ ਪਿਆਸ ਦਰਸਨ ਘਣੀ ਕੋਈ ਆਣਿ ਮਿਲਾਵੈ ਮਾਇ ॥ ਸੰਤ ਸਹਾਈ ਪ੍ਰੇਮ ਕੇ ਹਉ ਤਿਨ ਕੈ ਲਾਗਾ ਪਾਇ ॥ ਵਿਣੁ ਪ੍ਰਭ ਕਿਉ ਸੁਖੁ ਪਾਈਐ ਦੂਜੀ ਨਾਹੀ ਜਾਇ ॥ ਜਿੰਨ੍ਹ੍ਹੀ ਚਾਖਿਆ ਪ੍ਰੇਮ ਰਸੁ ਸੇ ਤ੍ਰਿਪਤਿ ਰਹੇ ਆਘਾਇ ॥ ਆਪੁ ਤਿਆਗਿ ਬਿਨਤੀ ਕਰਹਿ ਲੇਹੁ ਪ੍ਰਭੂ ਲੜਿ ਲਾਇ ॥ ਜੋ ਹਰਿ ਕੰਤਿ ਮਿਲਾਈਆ ਸਿ ਵਿਛੁੜਿ ਕਤਹਿ ਨ ਜਾਇ ॥ ਪ੍ਰਭ ਵਿਣੁ ਦੂਜਾ ਕੋ ਨਹੀ ਨਾਨਕ ਹਰਿ ਸਰਣਾਇ ॥ ਅਸੂ ਸੁਖੀ ਵਸੰਦੀਆ ਜਿਨਾ ਮਇਆ ਹਰਿ ਰਾਇ ॥੮॥

ਅਸੁਨਿ = ਅੱਸੂ ਵਿਚ। ਉਮਾਹੜਾ = ਉਛਾਲਾ। ਜਾਇ = ਜਾ ਕੇ। ਕਿਉਂ = ਕਿਵੇਂ? ਕਿਸੇ ਨ ਕਿਸੇ ਤਰ੍ਹਾਂ। ਮਨਿ = ਮਨ ਵਿਚ। ਤਨਿ = ਸਰੀਰ ਵਿਚ। ਘਣੀ = ਬਹੁਤ। ਆਣਿ = ਲਿਆ ਕੇ। ਮਾਇ = ਹੇ ਮਾਂ! ਹਉ = ਮੈਂ! ਤਿਨ ਕੈ ਪਾਇ = ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਚਰਨੀਂ। ਜਾਇ = ਥਾਂ। ਰਸੁ = ਸੁਆਦ, ਆਨੰਦ। ਰਹੇ ਆਘਾਇ = ਰੱਜ ਗਏ, ਤ੍ਰਿਸ਼ਨਾ ਪੋਹ ਨਹੀਂ ਸਕਦੀ। ਆਪੁ = ਆਪਾ-ਭਾਵ। ਲੜਿ = ਲੜ ਵਿਚ, ਪੱਲੇ। ਕੰਤਿ = ਕੰਤ ਨੇ। ਕਤਹਿ = ਕਿਸੇ ਹੋਰ ਥਾਂ। ਮਇਆ = ਮਿਹਰ ॥

ਹੇ ਮਾਂ! (ਭਾਦਰੋਂ ਦੇ ਘੁੰਮੇ ਤੇ ਤ੍ਰਾਟਕੇ ਲੰਘਣ ਪਿੱਛੋਂ) ਅੱਸੂ (ਦੀ ਮਿੱਠੀ ਮਿੱਠੀ ਰੁੱਤ) ਵਿਚ (ਮੇਰੇ ਅੰਦਰ ਪ੍ਰਭੂ-ਪਤੀ ਦੇ) ਪਿਆਰ ਦਾ ਉਛਾਲਾ ਆ ਰਿਹਾ ਹੈ (ਮਨ ਤੜਫਦਾ ਹੈ ਕਿ) ਕਿਸੇ ਨਾ ਕਿਸੇ ਤਰ੍ਹਾਂ ਚੱਲ ਕੇ ਪ੍ਰਭੂ-ਪਤੀ ਨੂੰ ਮਿਲਾਂ। ਮੇਰੇ ਮਨ ਵਿਚ ਮੇਰੇ ਤਨ ਵਿਚ ਪ੍ਰਭੂ ਦੇ ਦਰਸਨ ਦੀ ਬੜੀ ਪਿਆਸ ਲੱਗੀ ਹੋਈ ਹੈ (ਚਿੱਤ ਲੋਚਦਾ ਹੈ ਕਿ) ਕੋਈ (ਉਸ ਪਤੀ ਨੂੰ) ਲਿਆ ਕੇ ਮੇਲ ਕਰਾ ਦੇਵੇ। (ਇਹ ਸੁਣ ਕੇ ਕਿ) ਸੰਤ ਜਨ ਪ੍ਰੇਮ ਵਧਾਣ ਵਿਚ ਸਹੈਤਾ ਕਰਿਆ ਕਰਦੇ ਹਨ, ਮੈਂ ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਚਰਨੀਂ ਲੱਗੀ ਹਾਂ। (ਹੇ ਮਾਂ!) ਪ੍ਰਭੂ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਸੁਖ ਆਨੰਦ ਨਹੀਂ ਮਿਲ ਸਕਦਾ (ਕਿਉਂਕਿ ਸੁਖ-ਆਨੰਦ ਦੀ) ਹੋਰ ਕੋਈ ਥਾਂ ਹੀ ਨਹੀਂ। ਜਿਨ੍ਹਾਂ (ਵਡ-ਭਾਗੀਆਂ) ਨੇ ਪ੍ਰਭੂ-ਪਿਆਰ ਦਾ ਸੁਆਦ (ਇਕ ਵਾਰੀ) ਚੱਖ ਲਿਆ ਹੈ (ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਮਾਇਆ ਦੇ ਸੁਆਦ ਭੁੱਲ ਜਾਂਦੇ ਹਨ, ਮਾਇਆ ਵੱਲੋਂ) ਉਹ ਰੱਜ ਜਾਂਦੇ ਹਨ, ਆਪਾ-ਭਾਵ ਛੱਡ ਕੇ ਉਹ ਸਦਾ ਅਰਦਾਸਾਂ ਕਰਦੇ ਰਹਿੰਦੇ ਹਨ-ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ! ਸਾਨੂੰ ਆਪਣੇ ਲੜ ਲਾਈ ਰੱਖ। ਜਿਸ ਜੀਵ-ਇਸਤ੍ਰੀ ਨੂੰ ਪ੍ਰਭੂ ਖਸਮ ਨੇ ਆਪਣੇ ਨਾਲ ਮਿਲਾ ਲਿਆ ਹੈ, ਉਹ (ਉਸ ਮਿਲਾਪ ਵਿਚੋਂ) ਵਿੱਛੁੜ ਕੇ ਹੋਰ ਕਿਸੇ ਥਾਂ ਨਹੀਂ ਜਾਂਦੀ, (ਕਿਉਂਕਿ) ਹੇ ਨਾਨਕ (ਉਸ ਨੂੰ ਨਿਸਚਾ ਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਕਿ ਸਦੀਵੀ ਸੁਖ ਵਾਸਤੇ) ਪ੍ਰਭੂ ਦੀ ਸਰਨ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਹੋਰ ਕੋਈ ਥਾਂ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਉਹ ਸਦਾ ਪ੍ਰਭੂ ਦੀ ਸਰਨ ਪਈ ਰਹਿੰਦੀ ਹੈ। ਅੱਸੂ (ਦੀ ਮਿੱਠੀ ਮਿੱਠੀ ਰੁੱਤ) ਵਿਚ ਉਹ ਜੀਵ-ਇਸਤ੍ਰੀਆਂ ਸੁਖ ਵਿਚ ਵੱਸਦੀਆਂ ਹਨ, ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਉੱਤੇ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਕਿਰਪਾ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ॥੮॥

Sangrand Hukamnama Mahina Assu in Hindi

बारह माहा मांझ महला ५ घरु ४
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

असुनि प्रेम उमाहड़ा किउ मिलीऐ हरि जाइ ॥ मनि तनि पिआस दरसन घणी कोई आणि मिलावै माइ ॥ संत सहाई प्रेम के हउ तिन कै लागा पाइ ॥ विणु प्रभ किउ सुखु पाईऐ दूजी नाही जाइ ॥ जिंन्ही चाखिआ प्रेम रसु से त्रिपति रहे आघाइ ॥ आपु तिआगि बिनती करहि लेहु प्रभू लड़ि लाइ ॥ जो हरि कंति मिलाईआ सि विछुड़ि कतहि न जाइ ॥ प्रभ विणु दूजा को नही नानक हरि सरणाइ ॥ असू सुखी वसंदीआ जिना मइआ हरि राइ ॥८॥

असुनि = असू में। उमाहड़ा = उछाला। जाइ = जा के। किउं = कैसे? किसी न किसी तरह। मनि = मन में। तनि = तन में। घणी = बहुत। आणि = ला के। माइ = हे मां! हउ = मैं! तिन कै पाइ = उनके चरणों में। जाइ = जगह। रसु = स्वाद, आनंद। रहे आघाइ = तृप्त हो गए, तृष्णा छू नहीं सकती। आपु = स्वै भाव। लड़ि = पल्ले। कंति = कंत ने। कतहि = किसी और जगह। मइआ = मेहर।

अर्थ: हे मां! (भाद्रों की तपश भरी घुटन गुजरने के बाद) असू (की मीठी मीठी ऋतु) में (मेरे अंदर प्रभु पति के) प्यार का उछाला आ रहा है। (मन तड़फता है कि) किसी ना किसी तरह चल के प्रभु पति को मिलूँ। मेरे मन में मेरे तन में प्रभु के दर्शन की बड़ी प्यास लगी हुई है (चिक्त चाहता है कि) कोई (उस पति को) ला के मेल करा देवे। (ये सुन के कि) संत जन प्रेम बढ़ाने में सहायता किया करते हैं, मैं उनके चरणों में लगी हूँ। (हे माँ!) प्रभु के बगैर सुख आनंद नहीं मिल सकता (क्योंकि सुख आनंद की) और कोई जगह ही नहीं। जिस (भाग्यशालियों) ने प्रभु प्यार का स्वाद (एक बार) चख लिया है (उन्हें माया के स्वाद भूल जाते हैं, माया की ओर से) वे तृप्त हो जाते हैं। स्वै भाव छोड़ के वे सदा अरदासें ही करते रहते हैं: हे प्रभु! हमें अपने साथ जोड़ के रखो। जिस जीव-स्त्री को पति प्रभु ने अपने साथ मिला लिया है, वह (उस मिलाप में से) विछुड़ के अन्य किसी जगह नहीं जाती। (क्योंकि) हे नानक! (उसे निश्चय आ जाता है कि सदीवी सुख के वास्ते) प्रभु की शरण के बिना और कोई जगह नहीं है। वह सदा प्रभु की शरण पड़ी रहती है। असू (की मीठी मीठी ऋतु) में वह जीव स्त्रीयां सुखी बसती हैं, जिनपे परमात्मा की कृपा होती है।8।

Sangrand Hukamnama Mahina Assu in English

Baareh Maahaa Maanjh Mehalaa 5 Ghar 4
Ik Oankaar Sathigur Prasaadh ||

Asun Praem Oumaaharraa Kio Mileeai Har Jaae || Man Than Piaas Dharasan Ghanee Koee Aan Milaavai Maae || Santh Sehaaee Praem Kae Ho Thin Kai Laagaa Paae || Vin Prabh Kio Sukh Paaeeai Dhoojee Naahee Jaae || Jinnhee Chaakhiaa Praem Ras Sae Thripath Rehae Aaghaae || Aap Thiaag Binathee Karehi Laehu Prabhoo Larr Laae || Jo Har Kanth Milaaeeaa S Vishhurr Kathehi N Jaae || Prabh Vin Dhoojaa Ko Nehee Naanak Har Saranaae || Asoo Sukhee Vasandheeaa Jinaa Maeiaa Har Raae ||8||

In the month of Assu, my love for the Lord overwhelms me. How can I go and meet the Lord? My mind and body are so thirsty for the Blessed Vision of His Darshan. Won’t someone please come and lead me to him, O my mother. The Saints are the helpers of the Lord’s lovers; I fall and touch their feet. Without God, how can I find peace? There is nowhere else to go. Those who have tasted the sublime essence of His Love, remain satisfied and fulfilled. They renounce their selfishness and conceit, and they pray, “God, please attach me to the hem of Your robe”. Those, whom the Husband Lord has united with Himself, shall not be separated from Him again. Without God, there is no other at all. Nanak has entered the Sanctuary of the Lord. In Assu, the Lord, the Sovereign King, has granted His Mercy, and they dwell in peace. ||8||

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